वो अजनबी सा परिचित
वो अजनबी सा परिचित
सर्दी की एक सुस्त दोपहर थी। कई दिनों से नहाया नहीं था, और मन था कि पढ़ाई तो आज बिल्कुल नहीं होगी। बोरियत जब हद से गुज़र गई, तो एक फिल्म लगा ली। जैसे ही फिल्म खत्म हुई, दरवाजे पर खट-खट की आवाज़ आई।
दरवाज़ा खोला तो सामने एक शख़्स खड़ा था—करीब 5 फीट 8 इंच का कद, चमकती हुई बड़ी आँखें, जिन पर एक मोटा चश्मा इतरा रहा था। चेहरे पर घनी, अलसी-सी दाढ़ी और माथे पर सरसों सा लहलहाते बाल। तीन परतों के गर्म कपड़े और पैरों में बूट—ठंडी से पूरी तरह लैस।
यूँ तो वो चेहरा जाना-पहचाना लगा, लेकिन नाम याद नहीं आ रहा था। शर्म के मारे पूछ भी नहीं पाया।
उसने सहजता से पूछा, "कैसे हो?"
मैंने संक्षेप में कहा, "ठीक।"
अंदर बुलाया, बैठाया, चाय बनाई। वो मुस्कुराता रहा, मैं सोचता रहा।
धीरे-धीरे स्मृति की धुंध छंटने लगी। हाँ... शायद जब पहली बार मिला था, तब मैं आठवीं कक्षा में था। एक त्यौहार होता है, जब घरों में दाल-पूरी बनती है। मैं उन दिनों घर से दूर एक रूम में एक सीनियर भैया के साथ रहता था। उस त्यौहार पर भैया ने रूम पर ही रहने का प्लान किया, तो मैंने भी घर न जाने की ज़िद ठान ली। मां ने बहुत कहा, पर नहीं गया। वो पहली बार था जब मां और मैं त्यौहार में साथ नहीं थे। शायद मां को बहुत बुरा लगा था। घरवालों ने बड़ी कोशिशों के बाद दाल-पूरी एक ग्रामीण के हाथ भेज दी। मगर उसी दिन भैया का मन बदल गया और वे घर चले गए। मैं अकेला रह गया। घर फोन किया तो डांट पड़ी—"अब मत आओ।" शायद मां नाराज़ थी। मैं भी भीतर से टूट-सा गया था।
उन्हीं दिनों वह पहली बार मिला था। शांत-सा, कुछ गूढ़-सा। तभी से उसे मैं 'सैम' कहकर बुलाने लगा था — जबकि उसका असली नाम कुछ और था। और आज, सालों बाद, एक बार फिर सामने खड़ा था — बदला हुआ, पर भीतर से शायद वही।
फिर हमने बाते करना शुरू किया। आज वह मुझे उसके जीवन के अनुभव से दृष्टिकोण की परिभाषा बता रहा था। उसने बताया कि वह अब परंपरागत पढ़ाई छोड़ कुछ अलग विषयों की ओर झुका है जैसे मनोविज्ञान, समाजशास्त्र, दर्शनशास्त्र आदि। उसने अपने पहले ही बातचीत से मेरे उसके प्रति पूर्वाग्रह करना गलत साबित हुआ कि वो भीतर से शायद वही है। उसने दुनिया को समझने के नए-नए तरीके अपनाया और महसूस किया कि किताबों का ज्ञान और ज़िंदगी का अनुभव—दोनों में ज़मीन-आसमान का फ़र्क है। और आज भी वह ज्ञान की दुनिया में सैर कर रहा है। हमारी लंबी बाते हुई, और घड़ी की सुई मानो हवा के तेज झोंको से रात के दस बजा दी। बातें चल ही रही थीं कि उसके फोन की घंटी बजी। उसे जाना था। उठते-उठते उसने मुझसे हाथ मिलाया और दरवाजे की ओर बढ़ गया।
मैं उससे पूछना चाहता था—पहली बार जब वो मेरे रूम पर आया था और आज, जब मैं हजार किलोमीटर दूर इस नए शहर में हूं—उसे कैसे पता चलता है कि मैं कहां हूं?
न वो मेरा स्कूल का दोस्त था, न ही गांव का कोई परिचित।
उसका मेरे जीवन से कोई स्पष्ट नाता नहीं था—बस एक अजनबी सा, जो अचानक आता है, अनुभवों की गठरी खोलता है, कुछ गहरी बातें कहता है... और फिर चला जाता है।
और आज भी, जाते-जाते वो कह गया—"फिर मिलेंगे... जीवन के किसी और मोड़ पर।"
मैं दरवाजे पर खड़ा रह गया, वही शब्द गूंजते रहे भीतर...
"फिर मिलेंगे..."
कौन था वो?
क्या कोई संयोग?
या फिर
कुछ और... मैं अब तक समझ नहीं पाया हूँ।
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