वो अजनबी सा परिचित

वो अजनबी सा परिचित सर्दी की एक सुस्त दोपहर थी। कई दिनों से नहाया नहीं था, और मन था कि पढ़ाई तो आज बिल्कुल नहीं होगी। बोरियत जब हद से गुज़र गई, तो एक फिल्म लगा ली। जैसे ही फिल्म खत्म हुई, दरवाजे पर खट-खट की आवाज़ आई। दरवाज़ा खोला तो सामने एक शख़्स खड़ा था—करीब 5 फीट 8 इंच का कद, चमकती हुई बड़ी आँखें, जिन पर एक मोटा चश्मा इतरा रहा था। चेहरे पर घनी, अलसी-सी दाढ़ी और माथे पर सरसों सा लहलहाते बाल। तीन परतों के गर्म कपड़े और पैरों में बूट—ठंडी से पूरी तरह लैस। यूँ तो वो चेहरा जाना-पहचाना लगा, लेकिन नाम याद नहीं आ रहा था। शर्म के मारे पूछ भी नहीं पाया। उसने सहजता से पूछा, "कैसे हो?" मैंने संक्षेप में कहा, "ठीक।" अंदर बुलाया, बैठाया, चाय बनाई। वो मुस्कुराता रहा, मैं सोचता रहा। धीरे-धीरे स्मृति की धुंध छंटने लगी। हाँ... शायद जब पहली बार मिला था, तब मैं आठवीं कक्षा में था। एक त्यौहार होता है, जब घरों में दाल-पूरी बनती है। मैं उन दिनों घर से दूर एक रूम में एक सीनियर भैया के साथ रहता था। उस त्यौहार पर भैया ने रूम पर ही रहने का प्लान किया, तो मैंने भी घर न जाने की ज़िद ठान ली।...